Thursday 25 August 2011

वक्त की सीड़ियाँ..



वक्त की सीड़ियाँ चलते ही जाते हैं..
पता  नहीं  कब मंजिल को  पाते हैं...
कभी रोते कभी तो कभी हस लेते हैं...
पहाड़ से वक्त को भी कैसे खाते  हैं...
मजिल को पाने की चाह में खोते हैं...
जीवन के सीडियों में दिन बाद रातें हैं...
वक्त की सीड़ियाँ चलते ही जाते हैं..

Sunday 7 August 2011

आग में जलकर....




आग में जलकर ही  लोहा पिघलता हैं ....
जलने के बाद उसे  आकार मिलता हैं...
कभी आँख तो कभी हात जलता हैं ..
इसी से ही पेट का चक्का चलता हैं ...
कड़े संघर्ष के बाद ही फल मिलता हैं...
धुप में जलकर ही पेड़पे फूल खिलता हैं ... 
आग में जलकर ही  लोहा पिघलता हैं ..