skip to main |
skip to sidebar
जीवन के स्टेशन पे अपनों की चाह में..
खड़ा कोई मुसाफिर आपनों की राह में..
उसी एक लम्हे का इन्तजार करते हुए..
वक्त काटकर किसी का इजहार करते हुए..
गाड़ियाँ भी खड़ी लिए अपनों को बाहं में..
जीवन के स्टेशन पे अपनों की चाह में..
वक्त को देखते वो संभलकर चलता हैं...
हर जगह उसे सिर्फ वक्त ही मिलता हैं...
फिर भी इसीके कमी पर रोता हैं...
इस लिए ओ बेवक्त भी काम पर होता हैं..
यही वक्त जीवन को निगलता हैं...
सर्द या धुप हर हालमें वो पिघलता हैं..
बेदर्द वक्त हमें अनदेखाकर चलता हैं..
वक्त को देखते वो संभलकर चलता हैं...
कहीं एक तस्वीर ऐसी भी होती हैं...
पता नहीं हसती हैं या रोती हैं...
उसमें कुछ खास बात हैं...
पता नहीं दिन हैं या रात हैं...
सोना हैं ना चांदी, सिर्फ मोती हैं...
कहीं एक तस्वीर ऐसी भी होती हैं...
यही हैं बराचुक्की का बिजलीघर....
१९०६ में रोशन किया था एक शहर...
आज भी खड़ा हैं पहाड़ों के अन्दर...
बेंगलुरु जो एशिया का पहला शहर....
भीड़ में कई ल़ोग खड़े हैं...
कुछ ल़ोग मन पे अड़े हैं...
भीड़में भी सन्नाटा छाया हैं.....
हर तरफ मनका शोर पाया हैं..
सन्नाटेमें ही शोरकी जड़ें हैं...
भीड़ में कई ल़ोग खड़े हैं...